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“राजनीतिक चंदा या काला धन का खेल? – लोकतंत्र के नाम पर सफेद किया जा रहा है काला पैसा!”

भारत की राजनीति में चंदा अब काले धन को सफेद करने का जरिया बन चुका है। करीब 2,900 राजनीतिक पार्टियाँ रजिस्टर्ड हैं, जिनमें से कई केवल फंडिंग के लिए सक्रिय हैं। वर्ष 2023-24 में ₹7,200 करोड़ से अधिक चंदा मिला, जिस पर टैक्स नहीं लगता। ₹20,000 से कम चंदे का हिसाब देना भी ज़रूरी नहीं, जिससे पारदर्शिता खत्म हो जाती है। अगर इन पर टैक्स लगाया जाए तो देश के विकास में अरबों रुपये लग सकते हैं। अब ज़रूरत है राजनीतिक फंडिंग में पूर्ण पारदर्शिता और जवाबदेही की, ताकि लोकतंत्र सच में जनता के हाथों में रहे।

📊 प्रमुख आँकड़े

राजनीतिक पार्टी FY 2023-24 में “₹20,000 या उससे अधिक” चंदों की राशि (Donations ≥ ₹20,000)

  • BJP (Bharatiya Janata Party) ₹2,243.947 करोड़
  • Congress (Indian National Congress – INC)              ₹281.48 करोड़
  • AAP (Aam Aadmi Party)          लगभग ₹11 करोड़
  • CPI-(M) (Communist Party of India (Marxist))          लगभग ₹7.6 करोड़
  • NPEP (National People’s Party)         लगभग ₹0.14 करोड़ (i.e. ₹14 लाख)
  • BSP (Bahujan Samaj Party)   ₹0 — इस वर्ष उसने घोषित किया कि ₹20,000 या उससे अधिक वाले कोई चंदे नहीं मिले हैं

संक्षेप में — पिछले ~10 सालों (लगभग 2014–2024) में जितने आँकड़े सार्वजनिक/घोषित हुए हैं (ECI की contribution reports, ADR के विश्लेषण और मीडिया रिपोर्ट्स के आधार पर), टॉप-3 पार्टियाँ जो सबसे ज़्यादा चंदा इकट्ठा करती रही वे हैं:

1. BJP (Bharatiya Janata Party) — लगातार सबसे ऊपर; 2018–24 के Electoral-Bonds दौर और हर साल के ECI/ADR घोषित डेटा में BJP का शेयर सबसे बड़ा दिखता है (FY 2023-24 में BJP ने अकेले ₹2,243.95 करोड़ घोषित किये)।

2. Indian National Congress (INC) — कुल मिलाकर दूसरी सबसे बड़ी पार्टी रही; कई वर्षों में बड़े-छोटे करारों व दानदाताओं के बावजूद BJP से काफी पीछे रही (FY 2023-24 में ≈₹281.48 करोड़ घोषित)।

3. Trinamool Congress (TMC) / Regional heavyweights — अगर पूरे राष्ट्रव्यापी (cumulative) धन पर देखें तो तीसरे स्थान पर अक्सर TMC या कुछ वर्षों में अन्य बड़े राज्य-पक्ष जैसे TDP/YSR/DMK (या फिर AAP के कुछ विशेष वर्षों) दिखते हैं — परन्तु राष्ट्रीय स्तर पर दशकीय योग में तीसरा स्थान सामान्यतः TMC जैसा बड़ा क्षेत्रीय दल रखता है। (Electoral-bonds और ADR/ECI के सालाना डेटा में क्षेत्रीय बड़े दलों का भी बड़ा योगदान मिले दिखा)।

🏛️ भारत की राजनीति – चंदे के खेल का साम्राज्य

भारत में राजनीति अब विचारों से ज़्यादा पैसे का खेल बन चुकी है। जहाँ जनता के लिए नीतियाँ बननी चाहिए, वहाँ अब फाइलें तब तक नहीं चलतीं जब तक नोटों की गड्डियाँ न घूमें।

भारत के चुनाव आयोग के अनुसार, देश में कुल 2,900 से अधिक राजनीतिक पार्टियाँ पंजीकृत (registered) हैं — जिनमें सिर्फ 6 राष्ट्रीय और 57 राज्य स्तरीय पार्टियाँ हैं। बाकी सब? सिर्फ कागज़ी दल हैं जो चुनाव नहीं लड़ते, लेकिन चंदा खूब लेते हैं!

वित्त वर्ष 2023–24 में राजनीतिक पार्टियों को कुल ₹7,200 करोड़ से अधिक का चंदा मिला। इसमें से ₹2,262 करोड़ सिर्फ कॉर्पोरेट कंपनियों ने दिया। यानी उद्योगपति जनता के नाम पर दलों की झोली भरते हैं और बदले में नीतिगत फ़ायदे उठाते हैं।

यह खेल सिर्फ पैसों का नहीं, बल्कि सत्ता की “डीलिंग” का है — और दुर्भाग्य से यह सब “कानूनी” है!

💸 टैक्स फ्री राजनीति – जनता का पैसा, नेता की पार्टी

अब ज़रा सोचिए — आम आदमी 1 रुपये पर भी टैक्स देता है, लेकिन राजनीतिक पार्टियाँ अरबों का चंदा लेती हैं और 1 पैसा टैक्स नहीं देतीं!

क्यों? क्योंकि आयकर अधिनियम की धारा 13A, 80GGB, और 80GGC उन्हें पूरा Tax Exemption (कर-मुक्ति) देती हैं।

कंपनियाँ और व्यक्ति, दोनों को टैक्स में छूट मिलती है अगर वे किसी पार्टी को चंदा देते हैं।

पर असली सवाल ये है — क्या ये चंदा जनता के लिए है या नेताओं की जेब के लिए?

सबसे खतरनाक बात ये है कि ₹20,000 से कम के चंदे की जानकारी किसी को नहीं देनी पड़ती।

यानि करोड़ों रुपये को “20,000 से कम” दिखाकर काला धन सफेद कर दिया जाता है।

Election Commission की रिपोर्ट बताती है कि 95% अनपहचानी पार्टियाँ कभी अपनी फंडिंग डिटेल जमा ही नहीं करतीं।

और इस छूट की वजह से देश के खजाने को हर साल लगभग ₹4,000 करोड़ का नुकसान होता है।

🕵️ काला धन – लोकतंत्र का सबसे बड़ा धोखा

यह सच है कि राजनीतिक चंदा काले धन को वैध करने का सबसे सुरक्षित रास्ता बन चुका है।

जहाँ आम नागरिक को अपनी आय का हर सबूत देना पड़ता है, वहीं पार्टियाँ “donation” के नाम पर anonymous (गुमनाम) पैसे लेती हैं। Electoral Bonds योजना ने तो इस खेल को पूरी तरह संस्थागत बना दिया था — कंपनियाँ और व्यक्ति बिना पहचान के करोड़ों रुपये दे सकते थे, और किसी को पता नहीं चलता कि पैसा कहाँ से आया और किसे गया।

सुप्रीम कोर्ट ने 2024 में इसे असंवैधानिक करार दिया, लेकिन सवाल अभी भी जिंदा है —

क्या लोकतंत्र में धन की यह अंधी दौड़ हमें “जनता का शासन” से “पैसे का शासन” की ओर नहीं धकेल रही?

क्या ये सब “पारदर्शिता” है, या सिर्फ़ एक सिस्टमेटिक लूट का तरीका?

🔧 सुधार की ज़रूरत – अब बदलो ये सिस्टम!

अगर भारत को सच्चा लोकतंत्र बनाना है, तो राजनीतिक चंदे के सिस्टम को रीसेट (reset) करना ही होगा।

नीचे कुछ ठोस सुधार जिनसे व्यवस्था बदलेगी:

1. ₹20,000 की सीमा खत्म होनी चाहिए — हर चंदे का रिकॉर्ड अनिवार्य हो।

2. सिर्फ डिजिटल या बैंक माध्यम से चंदा लिया जाए ताकि नकदी से काले धन की एंट्री बंद हो।

3. हर दाता का नाम, PAN नंबर, पता सार्वजनिक पोर्टल पर दिखाया जाए।

4. अनपहचानी और निष्क्रिय पार्टियों का पंजीकरण तुरंत रद्द हो।

5. राजनीतिक पार्टियों के सालाना ऑडिट को संसद या लोकपाल के अधीन लाया जाए।

6. टैक्स छूट की सीमा तय हो — सिर्फ उन पार्टियों को छूट मिले जो पारदर्शी रूप से रिपोर्ट देती हैं।

7. ECI और CAG को स्वायत्त अधिकार मिले ताकि वे फंडिंग पर सख्ती से निगरानी रख सकें।

अगर टैक्स वसूला जाए, तो यही पैसा शिक्षा, स्वास्थ्य, और विकास में लगाया जा सकता है।

सोचिए, हर साल ₹4,000 करोड़ की टैक्स छूट अगर देश को मिल जाए — तो कितने स्कूल, अस्पताल, और रोजगार योजनाएँ शुरू हो सकती हैं!

🗣️ लोकतंत्र का असली अर्थ – जनता नहीं, जवाबदेही!

आज ज़रूरत है कि जनता जागे और पूछे — “नेता जी, ये चंदा किसका है और क्यों टैक्स-फ्री है?”

लोकतंत्र तभी मज़बूत होगा जब राजनीति में पैसे की पारदर्शिता आएगी।

वरना जो “जनता के नाम पर” चुने जाते हैं, वे “दाता के नाम पर” बिकते रहेंगे।

👉 अब वक्त है इस चंदे के काले खेल को खत्म करने का।

क्योंकि अगर टैक्स आम आदमी पर लग सकता है, तो नेताओं पर क्यों नहीं?

देश तभी आगे बढ़ेगा जब लोकतंत्र के मंदिर से काले धन का तिलक मिटेगा।

देश का विकास या सिर्फ़ चुनावी चंदा?

देश में नई-नई राजनीतिक पार्टियाँ बनती रहती हैं। इनके नेता बड़े-बड़े वादे करते हैं – कहते हैं कि हम देश को आगे बढ़ाएंगे, विकास करेंगे, जनता के लिए काम करेंगे। लेकिन सवाल ये उठता है कि जब इन पार्टियों को भारी भरकम चंदा मिलता है, तो टैक्स का नाम तक क्यों नहीं आता?

अगर सच में देश का विकास करना है, तो आपको मिले हर पैसे का एक हिस्सा देश की भलाई में लगाना ही चाहिए, न कि सिर्फ़ अपनी पार्टी के प्रचार और चुनावी मशीनरी में। जनता के पैसे से जमा हुआ चंदा भी आखिरकार देश के विकास के काम में ही आना चाहिए, लेकिन ऐसा होता है कहाँ? यहाँ समस्या सिर्फ पैसे की नहीं, बल्कि जनता को गुमराह करने की भी है। बड़े-बड़े विकास के वादे, जनता के सामने सुंदर भाषण – सब सिर्फ़ दिखावा है। हकीकत ये है कि विकास का सपना सिर्फ़ चुनावी पन्नों तक ही सिमट कर रह जाता है।

जनता, अब जागो! जब तक पार्टी चंदा और टैक्स का सही इस्तेमाल नहीं करेगी, तब तक देश का विकास सिर्फ़ एक बात-बात की बात बनकर रह जाएगा।

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Writer – Sita Sahay

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