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‘बहुजन आंदोलन’ के जनक ‘कांशीराम साहब’: संघर्ष, विचारधारा और विरासत का प्रतीक

कांशीराम जी: बहुजन आंदोलन के जनक और उनके अमर विचार

कांशीराम जी का जीवन संघर्ष, BSP की स्थापना, बहुजन समाज के उत्थान और उनके प्रेरणादायक नारों की कहानी जानिए इस ब्लॉग में।

कांशीराम जी का जीवन परिचय और प्रारंभिक संघर्ष

कांशीराम जी का जन्म 15 मार्च 1934 को पंजाब के रूपनगर जिले में एक साधारण दलित परिवार में हुआ था। बचपन से ही उन्होंने समाज में भेदभाव, जातिवाद और असमानता को गहराई से महसूस किया। स्नातक की पढ़ाई के बाद उन्होंने रक्षा अनुसंधान और विकास संगठन (DRDO) में वैज्ञानिक के रूप में कार्य किया, लेकिन वहीं उन्हें सरकारी व्यवस्था में दलित कर्मचारियों के साथ हो रहे अन्याय का अनुभव हुआ।

इसी अनुभव ने उन्हें जीवन की दिशा बदलने के लिए प्रेरित किया। उन्होंने अपनी सरकारी नौकरी छोड़ दी और जीवन को “बहुजन समाज” की सेवा के लिए समर्पित कर दिया। कांशीराम जी मानते थे कि “जो समाज अपने अधिकारों के लिए खुद नहीं लड़ता, उसे कोई दूसरा न्याय नहीं दिला सकता।” यही सोच आगे चलकर एक क्रांति का बीज बनी जिसने भारत की राजनीति की दिशा बदल दी।

संघर्ष की यात्रा और BAMCEF की स्थापना

कांशीराम जी का पहला संगठित प्रयास था BAMCEF (Backward and Minority Communities Employees Federation) की स्थापना, जो 6 दिसंबर 1978 को की गई। इसका उद्देश्य था – सरकारी और शिक्षित वर्ग में बैठे बहुजन कर्मचारियों को एक मंच पर लाना ताकि वे समाज में चेतना फैला सकें।

कांशीराम जी ने यह संदेश दिया कि “शिक्षित बहुजन समाज को अपनी शिक्षा और पद का उपयोग समाज के उत्थान के लिए करना चाहिए, न कि केवल व्यक्तिगत लाभ के लिए। ”BAMCEF से उन्होंने एक वैचारिक आंदोलन की नींव रखी, जो किसी जाति या धर्म के खिलाफ नहीं बल्कि समानता, स्वाभिमान और अधिकार के लिए था। उन्होंने यह भी कहा कि “राजनीति ही समाज बदलने का सबसे प्रभावी हथियार है।” इस सोच के साथ वे आगे बढ़े और एक ऐतिहासिक राजनीतिक संगठन की स्थापना की।

BSP की स्थापना और बहुजन राजनीति का उदय

1984 में कांशीराम जी ने बहुजन समाज पार्टी (BSP) की स्थापना की, जिसका नारा था — “बहुजन हिताय, बहुजन सुखाय।”BSP ने भारतीय राजनीति में उस वर्ग को आवाज़ दी जो सदियों से हाशिये पर था — दलित, पिछड़े, अल्पसंख्यक और श्रमिक वर्ग। कांशीराम जी का उद्देश्य केवल सत्ता प्राप्त करना नहीं था, बल्कि “सत्ता के माध्यम से सामाजिक परिवर्तन” लाना था।

उनके द्वारा दिया गया प्रसिद्ध नारा “जिसकी जितनी संख्या भारी, उसकी उतनी हिस्सेदारी” आज भी भारतीय राजनीति में गूंजता है। कांशीराम जी ने जनता को यह सिखाया कि केवल वोट देना ही नहीं, बल्कि सोच समझकर अपनी राजनीतिक शक्ति को पहचानना ज़रूरी है। उनकी रणनीति और संगठन ने बहुजन आंदोलन को एक नई दिशा दी, जिससे आने वाले समय में मायावती जी जैसी नेताओं ने भी आगे बढ़कर नेतृत्व संभाला।

विचार, नारे और समाज को दिए गए संदेश

  • ऊँची जातियाँ मुझसे पूछती हैं कि उन्हें हम अपनी पार्टी में क्यों न बुलाएँ। मैं उनसे कहता हूँ — आप तो बाकी तमाम दलों का नेतृत्व कर रहे हैं। अगर आप हमारे साथ जुड़ेंगे तो आप उन बदलावों को रोक देंगे जिनके लिए हम संघर्ष कर रहे हैं। इसलिए मुझे उनकी उपस्थिति से डर लगता है। वे यथास्थिति की रक्षा करते हैं और हमेशा अग्रणी भूमिका लेने की कोशिश करते हैं — इससे सिस्टम बदलने की प्रक्रिया थम जाएगी।
  • जब तक जाति का अस्तित्व है, मैं उसे अपने समाज के हित में उपयोग करूंगा। अगर किसी को यह अच्छा नहीं लगता तो पहले जाति व्यवस्था को खत्म कर लो। जहाँ ब्राह्मणवाद सफल है, वहाँ किसी भी अन्य ‘वाद’ की जमीन नष्ट हो जाती है — इसलिए हमें केवल सतही नहीं, बल्कि मौलिक और संरचनात्मक सामाजिक परिवर्तन की जरूरत है।
  • काफी समय से हम सिस्टम के दरवाजे खटखटा रहे हैं, न्याय की पुकार लगा रहे हैं पर न्याय नहीं मिल रहा। अब उन बेड़ियों को तोड़ने का समय आ गया है। हम तब तक नहीं रुकेंगे जब तक व्यवस्था के शोषितों को एक साथ खड़ा नहीं कर देते और देश में व्याप्त असमानता की भावना मिटा नहीं देते।
  • मैं गांधी को शंकराचार्य और मनु की पंक्ति में रखता हूँ — क्योंकि उनकी नीतियों और चालों से 52% ओबीसी स्वाभाविक रूप से बाहर रह गए। यह कड़वी सच्चाई है जिसे नजरअंदाज नहीं किया जा सकता।
  • जिस समुदाय का राजनीतिक प्रतिनिधित्व नहीं है, वह समुदाय मर चुका है — यह केवल एक बयान नहीं, बल्कि हकीकत है। हम सिर्फ सामाजिक न्याय नहीं चाहते; हम सामाजिक परिवर्तन चाहते हैं। सामाजिक न्याय अक्सर सत्ता प्राप्त लोगों के हाथों पर निर्भर रहता है — अच्छे नेता आए तो न्याय मिलता है, बुरे नेता आए तो फिर अन्याय होता है। इसलिए हमारा मकसद स्थायी, सर्वग्राही परिवर्तन है।
  • राजनीति में सफल हुए बिना और सत्ता हमारे हाथ में नहीं आई, सामाजिक व आर्थिक बदलाव असंभव हैं। राजनीतिक शक्ति ही सफलता की चाबी है। इसके लिए जनआंदोलन चाहिए — उसे वोटों में बदलना है, फिर उन वोटों को सीटों में, सीटों को सत्ता में और अंततः केंद्र में पहुँचाना है। यही हमारा मिशन और लक्ष्य है।

उपलब्धियाँ, विरासत और आज की प्रासंगिकता

कांशीराम जी ने बहुजन समाज को आत्मबल और राजनीतिक चेतना दी। उनके नेतृत्व में BSP ने उत्तर प्रदेश और देशभर में एक नई राजनीतिक धारा को जन्म दिया। 1995 में मायावती जी के मुख्यमंत्री बनने का रास्ता भी कांशीराम जी के संघर्ष और रणनीति से ही संभव हुआ।

उनकी सबसे बड़ी उपलब्धि यह रही कि उन्होंने समाज को यह अहसास कराया कि — “हम कमज़ोर नहीं, बस असंगठित हैं।”कांशीराम जी ने अपनी पूरी ज़िंदगी समाज सुधार के लिए समर्पित कर दी। 9 अक्टूबर 2006 को उन्होंने देह त्याग दी, लेकिन उनके विचार, आंदोलन और संदेश आज भी करोड़ों लोगों को प्रेरित करते हैं।

आज जब हम जाति, गरीबी और असमानता की बात करते हैं, तो कांशीराम जी की शिक्षाएँ पहले से भी अधिक प्रासंगिक लगती हैं। उनका जीवन हमें यह सिखाता है कि संघर्ष के बिना सम्मान नहीं मिलता, और शिक्षा के बिना परिवर्तन असंभव है।

एक विचार, एक मिशन, एक क्रांति

कांशीराम जी का जीवन केवल एक व्यक्ति की कहानी नहीं, बल्कि बहुजन समाज की चेतना का इतिहास है। उन्होंने सिखाया कि बदलाव किसी दान से नहीं, बल्कि संघर्ष से आता है।

उनकी विचारधारा आज भी हर उस व्यक्ति को प्रेरित करती है जो समाज में समानता, न्याय और आत्मसम्मान की लड़ाई लड़ रहा है।

उनके दिए गए नारे और संदेश सदैव जीवित रहेंगे —

“राजनीतिक सत्ता ही मास्टर की चाबी है”,

“बहुजन उठो, संगठित हो जाओ, सत्ता हासिल करो” —

यही है कांशीराम जी की अमर विरासत, जो आने वाली पीढ़ियों को हमेशा मार्ग दिखाती रहेगी।

writer – Somvir Singh

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